Saturday 9 March 2013

स्वप्नावस्था में दृष्टा स्वयं अकेला ही होता है |



स्वप्नावस्था में दृष्टा स्वयं अकेला ही होता है | अपने भीतर की कल्पना के आधार पर सिंह, सियार, भेड़, बकरी, नदी, नगर, बाग-बगीचे की एक पूरी सृष्टि का सर्जन कर लेता है | उस सृष्टि में स्वयं एक जीव बन जाता है और अपने को सबसे अलग मानकर भयभीत होता है | खुद शेर है और खुद ही बकरी है | खुद ही खुद को डराता है | चालू स्वप्न में सत्य का भान होने से दुःखी होता है | स्वप्न से जाग जाये तो पता चले कि स्वयं के सिवाय और कोई था ही नहीं | सारा प्रपंच कल्पना से रचा गया था | इसी प्रकार यह जगत जाग्रत के द्वारा कल्पित है, वास्तविक नहीं है | यदि जाग्रत का दृष्टा अपने आत्मस्वरूप में जाग जाये तो उसके तमाम दुःख-दारिद्रय पल भर में अदृश्य हो जायें |
Though the person is alone in dream, he creates a whole world of animals, gardens, parks and situation with his imagination. He himself takes on different forms and perceiving them as separate entities, experiences fear and anxiety. Though the fact remains that he is the lion and he himself is the goat in the dream yet he ends up frightening himself. As long as the dream continues, he is unaware of the reality and thus becomes sorrowful. On waking up, he realizes that there was none other than himself. The entire dream world was but a projection of his own imagination. Similarly in this world, in the waking state, is the projection of the viewer’s imagination in the waking state, and not the ultimate reality. If the viewer awakens to his True self, all his sufferings of this illusory world will disappear instantaneously.


Friday 8 March 2013

ओ तूफान ! उठ ! जोर-शोर से आँधी और पानी की वर्षा कर दे



तूफान ! उठ ! जोर-शोर से आँधी और पानी की वर्षा कर दे | आनन्द के महासागर ! पृथ्वी और आकाश को तोड़ दे | मानव ! गहरे से गहरा गोता लगा जिससे विचार एवं चिंताएँ छिन्न-भिन्न हो जायें | आओ, अपने हृदय से द्वैत की भावना को चुन-चुनकर बाहर निकाल दें जिससे आनंद का महासागर प्रत्यक्ष लहराने लगे | प्रेम की मादकता ! तू जल्दी | आत्मध्यान की, आत्मरस की मदिरा ! तू हम पर जल्दी आच्छादित हो जा | हमको तुरंत डुबो दे | विलम्ब करने का क्या प्रयोजन ? मेरा मन अब एक पल भी दुनियादारी में फँसना नहीं चाहता | अतः इस मन को प्यारे प्रभु में डुबो दे | ‘मैं और मेरा, तू और तेराके ढेर को आग लगा दे | आशंका और आशाओं के चीथड़ों को उतार फेंक | टुकड़े-टुकड़े करके पिघला दे | द्वैत की भावना को जड़ से उखाड़ दे | रोटी नहीं मिलेगी ? कोई परवाह नहीं | आश्रय और विश्राम नहीं मिलेगा ? कोई फिकर नहीं | लेकिन मुझे चाहिये प्रेम की, उस दिव्य प्रेम की प्यास और तड़प |मुझे वेद पुराण कुरान से क्या ? मुझे सत्य का पाठ पढ़ा दे कोई ||मुझे मंदिर मस्जिद जाना नहीं | मुझे प्रेम का रंग चढ़ा दे कोई ||जहाँ ऊँच या नीच का भेद नहीं | जहाँ जात या पाँत की बात नहीं || हो मंदिर मस्जिद चर्च जहाँ | हो पूजा नमाज़ में फर्क कहीं ||जहाँ सत्य ही सार हो जीवन का | रिधवार सिंगार हो त्याग जहाँ ||जहाँ प्रेम ही प्रेम की सृष्टि मिले | चलो नाव को ले चलें खे के वहाँ ||
O, storm! Arise and bring heavy gales and rain. O Ocean of Bliss! Break as under the limits of the earth and sky and let them merge into one. O, man! Delve deep within so that all thoughts and worries are shattered. Come! Let us weed out the sense of duality from our hearts. Let us raze the boundaries of our limited existence so that the ‘Ocean of Bliss’ may surge forth.Come, O intoxication of love! O wine of Self meditation, Bliss of the Self! Now inebriate me with love. Why delay? My mind no longer feels like getting involved in worldly affairs. Therefore, let it be immersed in love-personified God. Burn the feelings of I, mine, you and yours to ashes. Throw away expectations and doubts. Uproot the sense of duality, pulverize it and throw it to the winds. If there is no food, it does not matter, nor do I mind if there is no shelter, but I seek to the nurture the thirst for love, the divine love. ‘What have I to do with the Vedas, the Puranas and the Qur’an? Let someone teach me the lesson of the Truth instead. I do not wish to visit any temple or mosque. May somebody imbue me with divine love. Where there is no discrimination between the classes, where there exists no caste or creed. Where there are no temples, mosque or churches, where there is no difference between Puja and Namaz. Where Truth is the essence of life and renunciation is its decoration. Where the creation is filled with love and affection, let us ferry the boat to that place’